Pahalgam
एक लम्हा ही काफ़ी है
जन्नत को दोज़ख़ बनाने के लिए
इंसानियत को मरना पड़ता है
इंसान को मारने के लिए
हद और सरहद दोनों बेमानी हैं
नफ़रत को घर करने के लिए
असली कातिल तो ये सियासत है
बेगुनाह क़ुर्बान किए जाते हैं जिसके लिए
क्या ज़िंदगी का मिटाना ज़रूरी है
नुक्ता-ए-नज़र को आगे रखने के लिए
क्या इतनी हैवानियत लाज़िम है
किसी भी ख़ुदा की बंदगी के लिए
अरसों के बाद मुश्किल से गुल खिले हैं
मरहम से लगने लगे थे ज़ख़्मों के लिए
जाने कितने और फ़ासले अब भी हैं
बर-रू-ए-ज़मीं फ़िरदौस के लिए