गर यूँ अचानक छोड़ न देती साथ
तो आज तुम त्रेपन की होती
न कटी होती तुम से ये जो डोर
तो कहाँ बातें हमारी कभी पूरी होतीं
अनोखा बड़ा था तुम्हारा प्यार दिखाने का ढंग
आज तुम्हारे वो थप्पड़ कितनी ख़ुशी से क़ुबूल होते
काटे जो लम्हा लम्हा लड़ झगड़ तुम्हारे संग
वैसे ही काश कुछ पल और मिल गए होते
कभी दीदी, कभी सहेली, तो कभी माँ
ऐसी सरलता से तुम रूप बदल लेती
करती बदमाशी भी मेरी तरह
कभी सज़ा भी तुम ही देती
कितना मज़ा होता ज़िंदगी साथ जीने में
राहें कटतीं जो तेरे संग, कितनी ये आसान होतीं
न छिन गया होता जो हमसे तुम्हारा हाथ
तो आज तुम त्रेपन की होती