Khayal (ख़याल)
ख़याल कुछ यूँ आया कि बहुत दिन हुए कुछ लिख़ा नहीं उसी के हाथ थामे ख़याल एक दूसरा आया कि बीते दिनों लिखने लायक कुछ दिखा नहीं अब ख़यालों का कुछ ऐसा है कि एक-दो पे कभी सिलसिला रुका नहीं फिर लगा कि इस बात पे ही कुछ कह देतें हैं कम होता है कि लिखने बैठें और क़ाफ़िया मिला नहीं दम भर ले शायरी का जितना भी बात ग़ाफ़िल ये मुख़्तसर सी है कि शायर तेरी भरी तिजोरी भी बिना लफ़्ज़ों के समझो ख़ाली ही है