शून्य से जन्मा हूँ मैं
और शून्य में मिल जाऊँगा
इस मेल के अंतराल में
जीवन काल मैं बिताऊँगा
अल्प है किंतु ये
पूर्ण ये विराम नहीं
आज के गगन का
अस्त सूर्य ये हुआ नहीं
मात्र कुछ शब्द कह
वाणी ये न थम पाएगी
पंक्तियाँ इस वाक्य की
महाकाव्य ही रच जायेंगी
स्वयं है लिखि जा रही
हस्त की ये रेखा नहीं
सीख ली है हर उस बाण से
जिसने लक्ष्य भेदा नहीं
कर्म मैं अपना करूँ
आगे बढ़ता जाऊँगा
भाग्य की धरती से मैं
फल नहीं उपजाऊँगा
पाया जो पितृ-तात् से
दंभ उसका किंचित् भी नहीं
आशंका मात्र इतनी है
वृद्धि उसमें कर पाऊँ कि नहीं
नयनों को विश्वास है
स्वप्न सच हो जाएँगे
कष्ट करने वालों को
कृष्ण मिल ही जाएँगे
पथ पे चल पड़ा हूँ जिस
आपदा का अब भय नहीं
न मिले या मिलतीं रहें
उपलब्धियाँ मेरा अस्तित्व नहीं
शून्य हूँ मैं
और शून्य में मिल जाऊँगा
अंत की अग्नि में जल
कल राख़ मैं बन जाऊँगा