Khayal (ख़याल)
ख़याल कुछ यूँ आया कि बहुत दिन हुए कुछ लिख़ा नहीं उसी के हाथ थामे ख़याल एक दूसरा आया कि बीते दिनों लिखने लायक कुछ दिखा नहीं अब ख़यालों का कुछ ऐसा है कि एक-दो पे कभी सिलसिला रुका नहीं फिर लगा कि इस बात पे ही कुछ कह देतें हैं कम होता है कि लिखने बैठें और क़ाफ़िया मिला नहीं दम भर ले शायरी का जितना भी बात ग़ाफ़िल ये मुख़्तसर सी है कि शायर तेरी भरी तिजोरी भी बिना लफ़्ज़ों के समझो ख़ाली ही है
चौथ का चाँद
एक ऐसी ही चौथ की रात थी जब एक चाँद बादलों में छिप गया फिर लौट के वो दिन आ गया एक चौथ फिर से आ गयी फिर आँखें यूँ ही नम होंगी यादें फिर क़ाबू को तोड़ेंगी वक़्त थमता नहीं किसी के जाने से फिर भी कुछ लम्हे वहीं ठहर जातें हैं लाख़ आंसुओं के बह जाने पर भी कुछ मंज़र आँखों का घर बना लेते हैं यक़ीन बस यही है के एक दिन समय संग पीड़ ये भी कम होगी फ़िलहाल नैन ये भीगे विचरते हैं एक झपक में एक बरस यूँ बीत गया किसी दिवाली दीप फिर जलेंगे उन दियों में रोशन फिर ख़ुशियाँ होंगी छटेंगे बादल चाँद निकलेगा जब इंतेज़ार अब उस चौथ का है
फिर मिलते हैं
कोई तो है जहाँ जिधर तू आबाद है इधर तो तेरी हँसी तेरी बातें तेरी याद है मिलते होंगे वहाँ पर भी सालगिरह के मुबारक तराने अपने भी मिल गए होंगे दोस्त कुछ नए पुराने जितनी हमको है आती तुम्हें भी तो आती होगी फ़िलहाल तो इतना यक़ीन है तुम से फिर मुलाक़ात होगी
एक किताब की कहानी
क्या बेवजह बढ़ रहें हैं ये क़ाफ़िले कौन सी है वो मंज़िल चल पड़े जिस रास्ते कुछ तो होगा मसला-ए-जुनून छिड़ गया है इंक़लाब जिस के वास्ते कितना और रुकें के जब होगी वो सुबह छीनी आज़ादी जिस लिए फ़िरंगी हाथ से रंजिशें तो तब भी उबल के उभरी थीं क़ीमत तो चुकायी लेकिन क्या सीखा सरहदें बाँट के सिकती रही है बिकती भी रहेगी सियासी रोटी थकते नहीं ये ले ले कर भूखे मज़्लूमों के नाम बनती भी हैं और गिराई भी जाती हैं सरकारें आज़माती है हक़-ए-जम्हूरियत जब अवाम हर कोई कहे मैं सही हूँ और वो ग़लत फ़िर दूर दूर खड़े हैं लोग आईन लिए हाथ में देर आयेगी पर समझ आयेगी ये बात यक़ीनन पन्ने बस अलहदा हैं लेकिन हैं उसी किताब के