एक दिन की बात है
कुछ तीस बत्तीस बरस पहले की
भारी सा बैग लटकाए स्कूल के बाद
घर अपने मैं पैदल जा रहा था
खुली स्लीव ढीली टाई
राह पड़े किसी कंकर को
अपने काले जूते का निशाना बना
धुन अपनी में चला जा रहा था
यकायक पीछे एक साइकल की घंटी बजी
मटमैला कुर्ता पहने एक सज्जन सवार था
जानी पहचानी सी सूरत थी उसकी
आवाज़ में उसकी अनजाना सा प्यार था
“बैठो, मैं छोड़ देता हूँ बेटा” बोला वो मुस्कुराते
मेरी हिचक को भी वो भाँप रहा था
“तुमने पहचाना नहीं मुझे लगता है
लेकिन तुम को मैं हमेशा रखूँगा याद”
सवाल मेरे चेहरे पे पढ़ के वो बोला
“पहले ग्राहक थे तुम मेरे
जिस दिन रेडी लगायी थी मैंने”
ये सुन याद और स्वाद दोनों लौट आए
सालों तलक जब कभी भी बाज़ार जाता
उसकी आँखों में वही प्यार नज़र आता
शायद वही मिला था उसकी भेलपूरी में
चाव से हमेशा जिसे मैं था खाता
सुना अब वो इस दुनिया में नहीं है
याद कर उसको आँखों में नमी है
कहता था सब को हमेशा कहूँगा
दुनिया की सबसे अच्छी भेलपूरी वही है