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    कुछ पैसे उधार

    धीरज और उमा की कहानी भी किसी हिंदी फिल्म से कम नहीं. पहली नज़र का पहला प्यार, छेड़ छाड़, दो खानदानों की तकरार यानी की पूरी मसालेदार पिक्चर. यारों दोस्तों में धीरज और उमा के प्यार की मिसाल दी जाती है. लेकिन ये कहानी उनके प्यार से ज्यादा उनकी गृहस्ती के शुरुआत की है.

     उन्नीस सौ नवासी या नब्बे की बात होगी शायद. हमारे धीरज साहब थे तो B.Sc. IIIrd year के स्टूडेंट लेकिन ख्वाब वह शायर बनने के देखा करते थे. पिताजी से बोलने की हिम्मत तो कभी हुई नहीं इस लिए छुप छुप के लिखा करते. उन दिनों में जामिया मिलिया के हॉस्टल में शेरों शायरी करने वालों की महफ़िलें सजा करती थी जहाँ शमा-ऐ-महफिल का किरदार एक किंग साइज़ सिगरेट निभाया करती थी. धीरज की शायरी का ज़िक्र इन महफ़िलो से निकल जामिया के कैंटीन और वहाँ से संगीत कला अकादमी के मंच तक में होने लगा था. धीरज का तख़ल्लुस था गाफ़िल.

    उमा ने लेडी श्रीराम से अपना BA Journalism बस ख़तम किया था और जामिया में Mass Communication कोर्स में दाखिला लिया ही था. गुजरे चंद महीनों में गाफ़िल और उनकी शायरी दोनों उमा के दिल में घर कर चुके थे. अरे भाई कहा न कहानी थोड़ी फ़िल्मी है.

    बैरहाल, मियाँ गाफ़िल उर्फ़ धीरज सिंह की नज़रें उमा पार्थसारथी से पहली बार DTC की U-Special में मिली थीं. धीरज कालकाजी DDA फ्लैट के बस-स्टैंड से चढ़े और उमा तारा अपार्टमेन्ट से. रूट के पहले और दुसरे स्टॉप थे ये. पहले दो साल तक तो धीरज की हिम्मत भी नहीं हुई. लेकिन अब जब उमा जामिया आ पहुंची तो रोज़ देखते, बस की सीट पे रखे शायरी भरे खातों और अपने स्टॉप पहले उतरते उतरते दोनों में प्यार हो ही गया.

    महीने सालों में बदल गए, धीरज दिल्ली में ही एक छोटे थिएटर ग्रुप का हिस्सा बन गया और उमा ने एक टीवी न्यूज़ चैनल में नौकरी कर ली. किस्मतन दोनों के दफ्तर Connaught Place में ही थे. उनकी की मुलाकातें अब रोज़ लंच पे कॉफ़ी हाउस में होने लगी.

    धीरज और उमा दोनों के घर वाले उनके इस प्यार से नाखुश थे. एक ओर जहाँ उमा के पिता धीरज के North-Indian होने पर, उम्र में उमा से छोटे होने और इस सबसे ज़्यादा उसकी न के बराबर आमदनी से नाराज़ थे वहीँ दूसरी ओर धीरज के माँ बाप प्यार के ही खिलाफ थे. सिर्फ उमा की माँ थी जो कुछ हद तक इस रिश्ते से सहमत थी. “ये नाटक वाटक छोड़ के कोई सीधी सादी नौकरी कर ले बेटा शायद तब उमा के अप्पा मान जायें” कह के वह छुप हो जाती.


    उमा और धीरज को अब काफ़ी हाउस के कैशियर और सभी बैरा पहचानते थे. उनका स्टैण्डर्ड एक वेज कटलेट, एक प्लेट इडली, एक मसाला डोसा और दो कॉफ़ी का आर्डर केशियर रामपाल यादव को राटा हुआ था. अब तो धीरज को देख के ही वह पर्ची निकाल देते और उमा के पहुँचने से पहले टेबल पे आर्डर भेज भी दिया जाता. मनो जैसे काफी हाउस सारा धीरज और उमा की उस आधे घंटे की मुलाकात की राह देखता ख़ास तौर से रामपाल जी.

    रोज़ उमा और धीरज मिलते और कभी अपने काम तो कभी अपने घर वालों के उनको अलग करवाने के पैंतरों के बारे में बात करते.

    लेकिन जनवरी का वह दिन अलग था. उमा और धीरज रोज़ की जल्दी में नहीं थे और आज दोनों साथ भी आये थे.

    धीरज आते ही बोला “रामपाल जी आज ३ प्लेट गुलाब जामुन भी लगा दीजिये, आज आप लोगों का मुंह मीठा कराना है”. दोनों के चेहरे ख़ुशी से चमक रहे थे.

    रामपाल जी बोले “क्यों शायर आज क्या ख़ास है?”

    “चाचा हम दोनों बस कोर्ट से आ रहे हैं, हमने शादी कर ली”

    घर वालों को इस बात की अभी खबर नहीं थी और दोनों फिर से रोज़ की तरह जीने और मिलने लगे. फिर एक दिन आया जब उमा को अपने पिता को यह बात बतानी ही पड़ी.

    धीरज फ़ौरन एक घर की तलाश में जुट गया. वक़्त बहुत कम था और उमा के घर में तनाव बहुत बढ़ चुका था.

    “किराया ३००० है और मकान मालिक ३ महीने की पगड़ी भी मांग रहा है” धीरज की आवाज़ में फ़िक्र और बेबसी दोनों छलक रहीं थी. “मेरे पास १५००० हैं बैंक में” उमा ने होंसला देते हुआ कहा. “घर छोटा है but I love it” उमा बोली “दोनों के लिए पटेल नगर से CP convenient भी रहेगा”

    अगले कुछ दिनों में दोनों तिनका तिनका जोड़ अपना आशियाँ सजाने लगे. कॉफ़ी हाउस में लंच करने का रिवाज़ जारी रहा. कुछ महीने और बीत गए.

    “मैंने panchkuian रोड पे बहुत सुन्दर सोफ़ा-सेट देखा है” अपनी इडली खाते हुए उमा बोली.

    “अच्छा! कितने का है?” धीरज बोला “मैंने एजेंसी के लिए कुछ जिंगल्स लिखे हैं कुछ पैसे मिलेंगे उसके”

    “देखा है बस लेने की बात थोड़ी कर रही हूँ” उमा ने कहा.

    “फिर भी” धीरज बोला. “अच्छा कम से कम इतना दो बताओ कौन सी दुकान में देखा, मैं भी देखूं ज़रा”

    अगले दिन जब रोज़ की तरह जब धीरज कैश काउंटर पर पहुंचा तो रामपाल जी बोले “बेटे कुछ पैसे उधार…” धीरज बीच में ही बोल पड़ा “रामपाल जी आप ही के काउंटर पे बोर्ड लगा है आज नकद कल उधार का और आप ही….” रामपाल ने बात को आगे नहीं बढ़ाया.

    उमा और धीरज ने लंच ख़त्म किया और चले गए.

    उमा और धीरज जब श्याम को घर पहुंचे तो अपने नुक्कड़ की दुकान के सामने खड़े एक रिक्शा को देख उमा उछल पड़ी और बोली “धीरू देखो! That’s the one! मैं इसी सोफ़ा के बारे में बोल रही थी”

    “यार है तो वाकई में है तो सुन्दर” बोलते बोलते दोनों घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे. उमा ने चाय का पानी गैस पे रखा ही था के घंटी बजी.

    हाथ में एक पर्ची लिए खड़ा एक आदमी नीचे रिक्शा में रखे सोफ़ा की और इशारा करते हुआ बोला “सामान आया है आपका” उमा झट से पलटी और धीरज से लिपटते हुए बोली “बड़े गंदे हो तुम, surprise देना चाहते थे. बताया भी नहीं के जिंगल वाले पैसे मिल गए हैं”

    धीरज एक मिनट को सहम गया “मैंने तो सिर्फ दाम पुछा था और किश्तों में लेने की बात कही थी” दरवाज़े पे खड़े आदमी से बोला “ आप गलत पते पे आ गए हो, ये हमारा नहीं है”

    “साहब धीरज तो आप का ही नाम है ना, मैंने नुक्कड़ वाली दुकान में पुछा तो उसने यही घर बताया. रात बहुत हो चली है और मुझे भाड़ा एक तरफ का ही मिला है. या तो आप वापसी का भाड़ा दी दीजिये मैं सामान ले जाता हूँ”

    धीरज ने उमा की तरफ देखा वह सोफे को ही निहार रही थी.

    “अच्छा छोड़ जाओ फर्नीचर वाली दुकान जा के कल मैं बात कर लेता हूँ” ये बोल धीरज ने रिक्शे वाले को रुखसत किया.

    उमा से रहा नहीं गया और बोली “कल उसे थोडा एडवांस दे देते हैं बाकी किश्तों की बात कर लेंगे”

    अगले दिन लंच टाइम में दोनों काफ़ी हाउस छोड़ वढेरा फर्नीचर हाउस पहुँच गए.

    “जी पेमेंट तो हो गयी” दुकानदार बोला “एक सज्जन आये थे, उन्होंने बाहर रखा सोफ़ा देखा, दाम पुछा, काश पेमेंट करी और इस पते पे डिलीवरी करने को कहा” अपनी डायरी दिखाते हुए वह बोला.

    “कहीं अप्पा तो नहीं” उमा ने कहा “अम्मा से टेलीफोन पे बात हुई थी कुछ दिन पहले”

    “चलो बाहर बूथ से फोन लगा के पूछ लेते हैं” धीरज बोला “ उनसे कह देना की मैं धीरे धीरे करके लौटा दूंगा सारे पैसे”

    “Hello अप्पा. Thank you. I knew you would come around one day.” ये कहते उमा के आँखों में आँसू आ गये. इस से पहले की वह कुछ और कह पाती अप्पा ने “Wrong number” कह फ़ोन काट दिया.

    धीरज उमा की हालत समझते हुए बोला “Half day कर लेते हैं, काफ़ी हाउस में कुछ खा कर सीधे घर चलते हैं”

    “आज रामपाल जी नहीं आये क्या” काउंटर पे बैठे एक नए सज्जन से धीरज ने पुछा. “जी वह तो अब नहीं रहे, आप उन्हें जानते थे क्या” उसने कहा.

    उमा भी साथ ही थी और बोल पड़ी “क्या!! कैसे??”

    “जी परसों श्याम को कुछ छः, सवा-छः बजे. वह panchkuian रोड पर सड़क पार कर रहे थे की तेज़ आती एक गाड़ी ने उन्हें मार दिया. ठीक वढेरा फर्नीचर हाउस की लाल बत्ती पे”

    बीस साल हो चलें हैं अब दोनों की शादी को, दो बेटियां भी हैं. धीरज एक ऐड एजेंसी में क्रिएटिव डायरेक्टर है और उमा उसी न्यूज़ चैनल में एडिटर. आज भी वह सोफ़ा-सेट और उसके पीछे दीवार पे लगी रामपाल जी की तस्वीर उनके घर की शान हैं.

    बस इतनी सी थी यह कहानी.