• Hindi Poetry | कविताएँ

    Pahalgam

    एक लम्हा ही काफ़ी है 
    जन्नत को दोज़ख़ बनाने के लिए
    इंसानियत को मरना पड़ता है
    इंसान को मारने के लिए

    हद और सरहद दोनों बेमानी हैं
    नफ़रत को घर करने के लिए
    असली कातिल तो ये सियासत है
    बेगुनाह क़ुर्बान किए जाते हैं जिसके लिए

    क्या ज़िंदगी का मिटाना ज़रूरी है
    नुक्ता-ए-नज़र को आगे रखने के लिए
    क्या इतनी हैवानियत लाज़िम है
    किसी भी ख़ुदा की बंदगी के लिए

    अरसों के बाद मुश्किल से गुल खिले हैं
    मरहम से लगने लगे थे ज़ख़्मों के लिए
    जाने कितने और फ़ासले अब भी हैं
    बर-रू-ए-ज़मीं फ़िरदौस के लिए