Hindi Poetry | कविताएँ
पढ़ें सुधाम द्वारा लिखी कविताएँ। सुधाम के लेखन में श्रृंगार, करुणा, अधभुत आदि रसों का स्वाद सम्मिलित है।
रोज़ाना (Rozaana)
आसान नहीं है ऐसा हो जाना
होता भी तो नहीं है ऐसा रोज़ाना
मिले, बैठे, फिर अपनी राह चले
इस से ज़्यादा कौन करता है भले
बात ये कुछ तीस बरस पुरानी है
चंद दोस्तों की ये अजब कहानी है
अलग भाव, अलग स्वभाव का व्यवहार था
आपस में यूँ घुल जाना अनूठा विचार था
लड़कपन की सूखी लकड़ियाँ तैयार थी
बस एक अल्लढ़ चिंगारी की दरकार थी
एक हॉस्टल के कमरे की ये दास्ताँ है
गहरी नींव पे खड़ा ये यारी का मकान है
कभी बिछड़े, कही झगड़े, कभी बस पड़े पड़े
कितने दिन ढले, रातें बीतें, कितने सूरज चढ़े
ज़िंदगी के कदम मीलों में कब कैसे बदल गए
बाल में सफ़ेद और वज़न सालों संग बढ़ गए
दूरी जो थी यारी को सिमटा मिटा ना सकी
नोक झोंक, छेड़ छाड़ की आग बुझी न रुकी
जीवन के कई उतार-चढ़ाव दोस्तों ने देखें हैं
साथ खड़े रहने, निभाने के क़िस्से अनोखे हैं
हर गुट, हर कहानी में कई किरदार होतें हैं
किसी सूरत में सेना, किसी में सरदार होते हैं
जो ना देखे ऊँच-नीच ना देखे दुनियादारी
कुछ ऐसी और लंबी चली है ये गाड़ी हमारी
अब तक सँभाली है बस यूँ ही चलानी है
बावजूद दूरी या मजबूरी पूरी निभानी है
क्यों की आसान नहीं है ऐसा हो जाना
और होता भी तो नहीं है ऐसा रोज़ानाएहसास (ehsaas)
आज दिल में एक भारी सा एहसास है
यादों से लदी हुई हर घड़ी हर सॉस है
वक़्त हर ज़ख़्म का मरहम है ऐसा कहते हैं
जाने क्यों मगर ज़िन्दगी के घाव ताज़ा ही रहते हैं
सजा के तो कई अरमान रखे थे यूँ लोगों ने
अब तो वो भी ग़ुम हो गए संजोए थे जिन्होंने
आँगन में धूप तो आज भी वही खिलती है
बारिश की बूँदे वही अटखेलियाँ करती हैं
पसंदीदा पकवानों में सिमटा उस रिश्ते का ज़ायक़ा है
बच्चों की किसी हरकत में अब होता आभास है
अकेले हो जाने का दर्द यूँ बस सम्भाला है मैने
दिल में हैं महफूज़ अज़ीज़ जहाँ रहना था उन्होंनेमाँ (Maa)
जाने कितनी दफ़ा कंधे पे तेरे सर रख के घंटों सोया हूँ मैं जाने कितनी दफ़ा तेरे आँचल तले बिलख़ के रोया हूँ मैं जाने कितनी दफ़ा मेरी छोटी सी छींक ने रात भर जगाया होगा जाने कितनी दफ़ा मेरी किसी नादानी ने तेरा दिल दुखाया होगा जाने कितनी दफ़ा मेरे भविष्य की चिंता तूने की होगी जाने कितनी दफ़ा मेरी एक पुकार पे तुम हर काम छोड़ भागी होगी जाने कितनी दफ़ा ये सोचता हूँ क्या मैंने तुम्हें गर्वान्वित होने का कभी मौक़ा दिया जाने कितनी दफ़ा ये सोचता हूँ क्या अलग करता कैसे मैंने तुम्हें यूँ अचानक खो दिया जाने कितने दफ़ा मैं ख़ुद को और लोग मुझको इसे होनी की चाल बताते हैं जाने कितनी दफ़ा यादें और ख़याल तेरे होने का एहसास दिलाते हैं जाने कितनी दफ़ा फिर दो आसूँ बहा तुम्हारा स्मरण करता हूँ जाने कितनी दफ़ा शीश झुका के माँ तेरे जीवन को नमन करता हूँ
न्योता (Nyota)
महज़ वक़्त के बीतने से किसीकी याद घटती नहीं बिछोड़े के काटे से रिश्तों कि डोर कटती नहीं दिलों में छपी तस्वीरें अंधेरों में ओझल होतीं नहीं विचलित मन की आँखों में नींद आसानी से समाती नहीं ख़यालों में गूँजती पुकार खुली आँख सुनाई देती नहीं ये जो ऋणों का बंधन है वो चुकाये उतरता नहीं कोई है उस पार गर जहाँ तो बिन बुलावे के कोई जा पाता नहीं फ़िलहाल कोशिश है खुश रखें और रहें दुःख अपना अपनों पे और लादा जाता नहीं जीवन है, हर धुन, हर रंग में रमना है, रमेंगें द्वार पे जब तक यम न्योता ले के आता नहीं
Humare Ram (हमारे राम)
श्री राम कहो, रामचंद्र कहो कोई भजे सियाराम है कोई कहे पुरुषोत्तम उनको मानो तो स्वयं नारायण है कुछ तो बात होगी ही न उनमें की राम भावना युगों से प्रचलित है सहस्रों हैं वर्णन उनके, सैंकड़ो हैं गाथाएँ जो राम हैं हमारे वह तो हर कण में रमित हैं आज सज रहा शहर मोहल्ला सजी सजी हर गली भी है लहरा रही हनुमान पताका श्री राम लहर जो चली है जलेंगे आज दीप घर घर में पौष में मन रही दिवाली है प्रस्थापित होंगे राम लल्ला अवध में हर मन प्रफुल्लित और आभारी है पुनः निर्मित हो रहा है जो केवल मंदिर नहीं स्वाभिमान है यह किसी धर्म संप्रदाय की विजय नहीं धरोहर हैं हम जिसकी उस सभ्यता का उत्थान है हो सम्मान जहाँ हर नर का सम्मानित जहाँ हर नारी है प्रेरित हो जो राम राज्य से उस भारत की रचना ज़िम्मेदारी है राम आस्था राम विश्वास राम जीवन की सीख हैं राम रामत्व रम्य रमणीय राम इस संस्कृति के प्रतीक हैं कोई कहे पुरुषोत्तम उनको मानो तो स्वयं नारायण है श्री राम कहो, रामचंद्र कहो कोई भजे सियाराम है
जो कह न सका
कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन आज भी कहा नहीं जाता ऐसा होता तो है मगर होता क्यों है के दिल में आया ख़याल अंजाम नहीं पाता काश के कह दिया होता जो कहना था फिर वक़्त पे मैं ये इल्ज़ाम न लगाता आपकी इज़्ज़त करना जिसे सोचा था उस एहतिराम को बीच का फ़ासला न बनाता अब उम्मीद यही करता हूँ हर बार ये के सुन ही लेते थे आप जो मैं ज़ुबान पे न लाता यक़ीनन पहुँच रहा होगा मेरा दर्द भी ये वरना इतना मुझ से अकेले सँभाला नहीं जाता बस गयें हैं आप शायद अब कहीं मुझ में ही आप से जुदा चेहरा मेरा आईना नहीं बतलाता हर रोज़ रूबरू होता हूँ मैं यूँ अब आप से इसीलिए मैं इस बात का शोध नहीं मनाता कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन आज भी कहा नहीं जाता
Shunya (शून्य)
शून्य से जन्मा हूँ मैं और शून्य में मिल जाऊँगा इस मेल के अंतराल में जीवन काल मैं बिताऊँगा अल्प है किंतु ये पूर्ण ये विराम नहीं आज के गगन का अस्त सूर्य ये हुआ नहीं मात्र कुछ शब्द कह वाणी ये न थम पाएगी पंक्तियाँ इस वाक्य की महाकाव्य ही रच जायेंगी स्वयं है लिखि जा रही हस्त की ये रेखा नहीं सीख ली है हर उस बाण से जिसने लक्ष्य भेदा नहीं कर्म मैं अपना करूँ आगे बढ़ता जाऊँगा भाग्य की धरती से मैं फल नहीं उपजाऊँगा पाया जो पितृ-तात् से दंभ उसका किंचित् भी नहीं आशंका मात्र इतनी है वृद्धि उसमें कर पाऊँ कि नहीं नयनों को विश्वास है स्वप्न सच हो जाएँगे कष्ट करने वालों को कृष्ण मिल ही जाएँगे पथ पे चल पड़ा हूँ जिस आपदा का अब भय नहीं न मिले या मिलतीं रहें उपलब्धियाँ मेरा अस्तित्व नहीं शून्य हूँ मैं और शून्य में मिल जाऊँगा अंत की अग्नि में जल कल राख़ मैं बन जाऊँगा
Us Raat Ki Baat (उस रात की बात)
उस रात की बात कुछ और ही थी दिलचस्प क़िस्सों और यादों की होड़ सी थी नये पुराने रिश्तों बीच लगी एक दौड़ सी थी चेहरे जो धुंधला गए थे वो साफ़ खिल गए कुछ मलाल भी होंगे जो उस रात धुल गए बीते सालों का असर कहीं छिपा कहीं ज़ाहिर था गहराते रिश्तों के मंज़र का हर शक्स नाज़िर था इतनी हसीन थी मुलाक़ातें के शाम कम पड़ गई या यूँ कह दें की अपना काम बहती जाम कर गई ख़ुशियों का उठता ग़ुबार बारिश भी दबा न सकी लगी जो आग है मिलन की वो कब है रुकी उस रात की बात कुछ और ही थी उस रात की बात कुछ और ही थी
Khayal (ख़याल)
ख़याल कुछ यूँ आया कि बहुत दिन हुए कुछ लिख़ा नहीं उसी के हाथ थामे ख़याल एक दूसरा आया कि बीते दिनों लिखने लायक कुछ दिखा नहीं अब ख़यालों का कुछ ऐसा है कि एक-दो पे कभी सिलसिला रुका नहीं फिर लगा कि इस बात पे ही कुछ कह देतें हैं कम होता है कि लिखने बैठें और क़ाफ़िया मिला नहीं दम भर ले शायरी का जितना भी बात ग़ाफ़िल ये मुख़्तसर सी है कि शायर तेरी भरी तिजोरी भी बिना लफ़्ज़ों के समझो ख़ाली ही है
Kisi Roz (किसी रोज़)
कभी किसी रोज़ जब मिलोगे तो पूछेंगे एक बार पीछे मुड के देखा के नहीं याद में हमारी दो बूँद रोये के नहीं कभी किसी रोज़ जब मिलोगे तो पूछेंगे जब भी गुज़रे होगे तुम गली से हमारी एक नज़र तो फ़ेराई होगी दर पे हमारी कभी किसी रोज़ जब मिलोगे तो पूछेंगे वो जो यादें बनाई थीं उन यदों का क्या हुआ वो जो क़समें लीं थी उन क़समों का क्या हुआ कभी किसी रोज़ जब मिलोगे तो पूछेंगे के इतने बरसों में तुमने क्या क्या भुला दिया जो थी कशिश दरमियाँ उसे कैसे मिटा दिया कभी किसी रोज़ जब मिलोगे तो पूछेंगे क्या समझे थे जिसे वो प्यार था भी या नहीं क्या ये दर्द बेवजह है और तुम बेवफ़ा नहीं कभी किसी रोज़ जब मिलोगे तो पूछेंगे