लम्हा लम्हा बीत रही है ज़िंदगी
जीवन की अपनी ही एक ताल है
वक्त की किसी से नहीं है बंदगी
हाल-ए-जहाँ से बेवास्ता चाल है
बचपन जवानी की चोटियाँ
पीछे कहीं दूर छूठ गयीं
ये अधेड़ उम्र की है वादियाँ
बहती दरिया है, मोड़ आगे हैं कयीं
कैसे ठहरें बस जायें किसी एक लम्हे में हम
बिखरे पड़े हैं यादों के ढेरों मोती
चमक है कुछ में और कुछ में है कम
किसी लम्हे में सुबह, किसी में शाम नहीं होती
भर तो ली है हमने यादों से तिजोरी
वक्त के कहाँ हुए हम धनी हैं
बाज़ार में माज़ी की क़ीमत है थोड़ी
क्या मालूम बस सही परख़ की कमी है
टिक टिक करता रहता है गजर
मसखरी सुई भी ज़िद पे अड़ी है
एक तू ही नहीं महफ़िल में बेख़बर
ग़ौर कर ऐसे रईसों की भीड़ लगी है