दंगल
वाक़िफ हैं तेरे हथकंडो से ए ज़िंदगी फ़िर भी उलझन पैदा कर ही देती हो लाख़ जतन सम्भालने के करते हैं मगर बख़ूब धोबी पच्छाड़ लगा पटक ही देती हो थेथर मगर हम भी कम कहाँ दंगल में तेरी उठ के फ़िर कूद जातें हैं थके पिटे कितने ही हो भला ख़ुद पे एक बार और दाव लगाते हैं तुम्हारे अखाड़े की लगी मिट्टी नहीं छूटती बहुत चाट ली ज़मीन की धूल गिर गिर कर ये विजय नहीं स्वाभिमान की ज़िद्द है जो लक्ष्य नहीं चूकती अब निकलेंगे अपनी पीठ पे या बाज़ी जीत कर