कहते हैं चेहरा रूह का आइना होता है
आइना भी मगर कहाँ सारा सच बतलाता है
हँसते खिलखिलाते चेहरों के पीछे अक़सर
झुर्रियों के बीच गहरे ज़ख़्म दबे होते हैं
चाहे अनचाहे मुखौटे पहनना तो हम सीख लेतें हैं
हक़ीक़त मगर अपनी गली ढूँढ ही लेती है
लाख छुपाने की कोशिशों के बावजूद
शिकन आख़िर नज़र आ ही जाती है
हम सब कोई ना कोई बोझ तो उठाए दबाए फिरते हैं
बस कभी कह के तो कभी सह के सम्भाल लेते हैं
ग़म और ख़ुशी तो सहेलियाँ हैं
कब एक ने दूजी का हाथ छोड़ा है
इन दोनों के रिश्ते में जलन कहीं तो पलती है
ज़्यादा देर एक साथ दे किसी का तो दूसरी खलती है
ज़िन्दगी है कैसे और कब तक एक ताल पे नाचेगी
ग़म लगाम है तो ख़ुशी चाबुक
फ़ितरतन वो भागेगी