एक ऐसी ही चौथ की रात थी
जब एक चाँद बादलों में छिप गया
फिर लौट के वो दिन आ गया
एक चौथ फिर से आ गयी
फिर आँखें यूँ ही नम होंगी
यादें फिर क़ाबू को तोड़ेंगी
वक़्त थमता नहीं किसी के जाने से
फिर भी कुछ लम्हे वहीं ठहर जातें हैं
लाख़ आंसुओं के बह जाने पर भी
कुछ मंज़र आँखों का घर बना लेते हैं
यक़ीन बस यही है के एक दिन
समय संग पीड़ ये भी कम होगी
फ़िलहाल नैन ये भीगे विचरते हैं
एक झपक में एक बरस यूँ बीत गया
किसी दिवाली दीप फिर जलेंगे
उन दियों में रोशन फिर ख़ुशियाँ होंगी
छटेंगे बादल चाँद निकलेगा जब
इंतेज़ार अब उस चौथ का है